लगभग 200 साल पहले जापान में एक संन्यासी था, जिसकी सिर्फ एक ही शिक्षा थी —
“जागो! हर पल होश में रहो।”

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उसकी ख्याति युवा सम्राट तक पहुँची। सम्राट खुद भी भीतर से बेचैन था, जागना चाहता था।

संन्यासी ने कहा:
“सीख सकते हो… लेकिन महल में नहीं, मेरे आश्रम में। और यह मत पूछना कितने दिन लगेंगे।”

पहला पाठ – हर पल सजगता
गुरु ने नियम रखा:
“दिन के किसी भी समय मैं लकड़ी की तलवार से हमला करूंगा। खा रहे हो, पढ़ रहे हो, कुछ भी कर रहे हो — हर पल होश में रहना।”

3 महीने बाद — कोई हमला उसे छू तक नहीं पाता।

दूसरा पाठ – नींद में भी जागना
अब चुनौती बढ़ी:
“अब मैं रात में, सोते हुए हमला करूंगा। सपनों में भी सजग रहो।”

धीरे-धीरे वह नींद में भी होश में रहने लगा।
अब दिन विचार-रहित, रात स्वप्न-रहित हो गई।

तीसरा पाठ – असली तलवार
“अब मैं असली तलवार से वार करूंगा। एक गलती = मृत्यु।”

उसका ध्यान अब शरीर के रोम-रोम में भर गया।
3 महीने बीते, गुरु एक बार भी उसे छू न सका।
अब वह पूर्ण जाग्रत था।

अंतिम चमत्कार
विदाई से पहले राजकुमार ने सोचा — “क्यों न गुरु की सजगता की परीक्षा लूं?”

गुरु ने दूर से ही पुकारा:
“नहीं! मत करना, मैं बूढ़ा हूँ।”

राजकुमार चौंक गया — उसने तो बस सोचा ही था!

गुरु मुस्कराए:
“जब मन पूर्ण शांत हो, तो दूसरे के मन की भी आवाज़ सुनाई देती है… यही परम चेतना है।”

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